वर्तमान के परिदृश्य से हम सब अवगत हैं, कोविड-19 वैश्विक महामारी ने मानो चलती हुई गाड़ी पर अचानक से ब्रेक लगा दिया हो! इसका प्रभाव आर्थिक और सामाजिक पहलुओं पर तो पड़ा ही, साथ ही साथ जो सबसे अधिक प्रभावित हुई – वो है हमारी शिक्षा व्यवस्था और पठन-पाठन। शैक्षणिक दृष्टि से वर्तमान वस्तुस्थिति से उत्पन्न ‘प्रभाव’ और उपस्थित ‘विकल्प’ की सीमाओं और संभावनाओं से संबंधित कुछ पक्ष साझा करना चाहूँगा।
जब भी हम बच्चों के सीखने-सिखाने की प्रक्रियाओं पर बात करते हैं तो सर्वप्रथम कक्षा-कक्ष में होने वाली दैनिक गतिविधियों की बात आती है। यहाँ इसको समझना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि बच्चे का सर्वांगीण विकास का क्रम इसी मंच के माध्यम से होता है। सीखने का सिद्धांत कहता है कि बच्चा खुद से सीखता है, हम केवल माहौल देते हैं। परंतु कोरोना संकट के दौर में सब कुछ बंद हो जाने के कारण हमारे विद्यालय भी इससे अछूते नहीं रहे और देश के करोड़ों बच्चों का स्कूल जाना बंद हो गया। पुनः सीखने के सिद्धांत के दृष्टिकोण से देखें तो जो माहौल कक्षा-कक्ष में प्रदान किया जाता था वो बंद हो गया।
इस क्षतिपूर्ति हेतु वैकल्पिक व्यवस्था ‘ऑनलाइन शिक्षण’ बना और धड़ल्ले से इसका ऐसा प्रचार हुआ जिससे लगा कि – बस अब यही माध्यम है, जो शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन का वाहक बनेगा। तमाम ऐप और वेबसाइट के माध्यम से ऑनलाइन शिक्षण की प्रक्रिया शुरू तो हुई, किंतु उसके साथ हीं चुनौतियों का क्रम भी शुरू हो गया।
तकनीकी रूप से हमें सक्षम बनने के लिए यह एक अवसर भी है और चुनौती भी, क्योंकि हमारे देश में अभी भी ग्रामीण शिक्षा की बात की जाए तो वहाँ पढ़ाने वाले शिक्षक तकनीकी रूप से इतने सक्षम नहीं हैं कि विद्यार्थी के पठन-पाठन को आसानी से संपादित करा पाएँ । इस दृष्टि से यह आपदाकाल अपनी क्षमताओं को सबल बनाने का अवसर भी है और चुनौती भी क्योंकि खुद के क्षमता निर्माण में विद्यार्थी हित बाधित न हो जाए !
शिक्षा व्यवस्था के असंतुलन के अंतर्गत, यहाँ केवल पठन-पाठन की प्रक्रिया का सवाल महत्वपूर्ण नहीं है! उससे अधिक महत्वपूर्ण बच्चों की भावनात्मक पहलुओं को समझने का मनोविज्ञान है । ऑनलाइन शिक्षण में इस मनोवैज्ञानिक पक्ष का संतुलन किस प्रकार स्थापित हो पायेगा? यह प्रश्न सर्वाधिक गंभीर है! हमारे शिक्षण पद्धति में ‘संवाद’ की प्रमुख भूमिका रही है जिससे बच्चों के भावनात्मक पहलू और तार्किक क्षमता का स्वाभाविक विकास होता है।
प्राय: ऐसा देखने को मिलता है कि सामान्य परिस्थितियों में भी ग्रामीण और दूरस्थ के विद्यालयों में बच्चों की उपस्थिति असंतोषजनक रहती है और इसके पीछे बहुत सारे कारण भी हैं। आज जब डिजिटल माध्यमों से घर बैठे ही शिक्षा अर्जित करने की प्रक्रिया को प्रोत्साहित किया जा रहा है तब ध्यान देने योग्य है कि अगर पुनः स्थिति सामान्य बनती है तब पहले से अनुपस्थिति से जूझ रहे विद्यालय बच्चों को फिर से कक्षाओं से जोड़ने में कैसे विश्वसनीयता कायम कर पायेंगे। जब तक कोरोना महामारी से निजात ना मिल जाए ऑनलाइन शिक्षण व्यवस्था वैकल्पिक माध्यम ही होना चाहिए । मगर कई जगहों पर इसे मुख्य धारा मे लाने का प्रयास किया जा रहा है, जिसका दूरगामी परिणाम अच्छा नहीं होगा।
डिजिटल लर्निंग को नवोन्मेषी, समय, संसाधन और दूरी की बचत वाला माध्यम माना जाता है, वहीं कुछ जानकारों के मुताबिक ये अकेलापन, अलगाव और हताशा पैदा कर सकती है। ऑनलाइन शिक्षण में कक्षाओं के संचालन के सहज तरीके विकसित करने की चुनौती भी होगी। वैसे क्लासरूम शिक्षा का विलोप भारत जैसे देश में संभव नहीं है, जरूरत इस बात की है कि शिक्षा का ऐसा एक समन्वयकारी और समावेशी ढांचा बनाया जाए जिसमें डिजिटल शिक्षा पारंपरिक शिक्षा पद्धति का मखौल न उड़ाती लगे और न पारंपरिक शिक्षा, डिजिटल लर्निंग के नवाचार को बाधित करने की कोशिश करे!
बच्चों के मौलिक और स्वतंत्र विचारों के संबंध में ऑनलाइन शिक्षण कितना मदगार सिद्ध हो रहा है? यह प्रश्न शिक्षा की मूल भावना से ही अलग है। बच्चों का स्वतंत्र चिंतन प्रकृति के साथ जुड़ा हुआ है, ऑनलाइन (आभासी विधी) स्वप्न की तरह है, जो कभी सच भी-कभी झूठ भी दोनो पहलुओं में चल सकता है, मगर वर्तमान की स्थिति में भावनात्मक जुड़ाव बेहद ज़रूरी है। यहाँ मैं ख़ासकर उन बच्चों की बात कर रहा हूँ जो अभी-अभी स्कूल से अपना जुड़ाव शुरू ही किए थे।
ऑनलाइन शिक्षा से जुड़ी चुनौतियों को आंकड़ों के हिसाब से समझना ज्यादा आसान होगा। भारत जैसे देश में आज भी इसकी कुल आबादी के महज 40 करोड़ लोग ही स्मार्टफोन का इस्तेमाल करते हैं। भारत में मजदूरों कि कुल संख्या लगभग 48 करोड़ के आसपास है। ग्रामीण परिवेश में अगर पिता मजदूरी कर रहे हैं तो वे अपना फोन अपने साथ ले जाते हैं, मोबाइल पर संगीत के धुन सुनते हुए अक्सर आप हम इन्हें मुश्किल परिस्थिति में भी आराम से अपना काम करते देख सकते हैं।
महामारी के इस दौर में दुनिया भर के 1.26 बिलियन बच्चे स्कूलों के बंद हो जाने से प्रभावित हुए हैं। भारत में सरकारी स्कूलों में आज भी आधारभूत सुविधाओं का अभाव है। ऑनलाइन शिक्षा के लिए आज तक भारत सरकार के द्वारा वृहद स्तर पर सरकारी शिक्षकों की ट्रेनिंग नहीं कराई गई है। यह कहते हुए भी नहीं हिचकना चाहिए की शिक्षकों में शैक्षणिक गुणवत्ता की कमी है। नेटवर्क समस्या भी इस क्षेत्र में एक मुसीबत है। कश्मीर के सुदूर गावों में या उत्तराखंड या हिमाचल के पहाड़ी गावों में जहां आज भी बमुश्किल ही नेटवर्क आता है। वहां ऑनलाइन शिक्षा की बात करना दिवास्वप्न ही है।
शिक्षा में महिलाओं की भूमिका हमेशा निर्णायक रही है। आज भी भारत जैसे देश में ग्रामीण क्षेत्रों में सिर्फ 8.5 प्रतिशत महिलाएं ही इंटरनेट चलाना जानती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में कंप्यूटर की उपलब्धता 4.4 प्रतिशत ही है, वहीं शहरों में यह 23.4 प्रतिशत है। इंटरनेट की ग्रामीण उपलब्धता आज भी 14.9 फीसदी है, वहीं शहरों में इंटरनेट की उपलब्धता 42 फीसदी है। आंकड़ों से स्थिति कुछ साफ हो जाती है। अगर भारत आज भी गावों का देश है तो सरकार को ऑनलाइन शिक्षा के लिए गावों में क्या प्रयास किया जाए इस दिशा में भी ध्यान देने की जरूरत है।
योगेन्द्र चौबे
(लेखक स्कूली शिक्षा क्षेत्र में लंबे समय से कार्य कर रहे है)