नई शिक्षा नीति से स्कूली शिक्षा में आएंगे बुनियादी बदलाव

सरकारी स्कूल के बच्चों से संवाद करते प्रधानमंत्री

नई शिक्षा नीति के बारे में आप क्या कहेंगे? ये सवाल सुनते ही देश के पिछड़े इलाके में चल रहे लगभग 5 हजार कस्तूरबा आवासीय विद्यालयों में से एक के शिक्षक ख़ुशी से बोल उठे, अब गरीब की बेटियों को अधिक पढ़ने का मौका मिलेगा.

दरअसल उनकी ख़ुशी इस बात से जुड़ी थी कि नई शिक्षा नीति की वजह से अब कस्तूरबा में केवल कक्षा 6 से 8 तक नही, बल्कि 12वीं तक की पढ़ाई होगी.  कस्तूरबा आवासीय विद्यालय समाज के वंचित तबके, दिव्यांग, ड्राप आउट हो चुकी बेटियों के लिए है. नई नीति इनके लिए एक वरदान बनकर आई है. ये कदम दूरदराज के पिछड़े इलाके के लाखों बेटियों को बड़े स्वप्न देखने को प्रेरित करेगी.

34 वर्ष बाद देश को मिली नई शिक्षा नीति में इस तरह की कई पहल देखने को मिली है, जहाँ स्कूली शिक्षा से जुड़ी समस्याओं को समझा गया है, जिससे शिक्षा क्षेत्र में बुनियादी बदलाव आएंगे!

सीखने के स्तर बेहतर करने का राष्ट्रीय संकल्प

नवंबर 2017 में देशभर के लगभग 15 लाख विद्यार्थियों के ऊपर हुए नेशनल अचीवमेंट सर्वे हो अथवा स्वयंसेवी संस्थाओं की रपट, सब यही बताती है कि देश के बच्चों में भाषा और गणित की दक्षता कक्षानुसार नही है, भारत में लर्निंग क्राइसिस अर्थात सीखने का संकट है और इसपर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है.  वर्तमान में स्कूली शिक्षा व्यवस्था से जुड़े तक़रीबन 5 करोड़ बच्चें ऐसे है, जिन्होंने बुनियादी साक्षरता और संख्या ज्ञान भी नही सीखा है.

नई शिक्षा नीति ने इस चुनौती को स्वीकार किया है. इसके समाधान के रास्ते सुझाए है. महत्वपूर्ण उपायों में 2025 तक प्राथमिक विद्यालयों में सार्वभौमिक मूलभूत साक्षरता और संख्या-ज्ञान प्राप्त करना शिक्षा प्रणाली की सर्वोच्च प्राथमिकता होगी. शिक्षा मंत्रालय आधारभूत साक्षरता एवं संख्यात्मक ज्ञान पर एक राष्ट्रीय मिशन स्थापित करेगी, जो राज्य व केन्द्रशासित प्रदेशों से समन्वय बनाकर क्रियान्वयन योजना बनाएगी, उसे लागू करेगी. यह कदम देश में सीखने के स्तर को बेहतर करने की दिशा में प्रभावी होगा, साथ ही सीखने के स्तर को ठीक करने के राष्ट्रीय संकल्प की तरह सबको अपनी जिम्मेवारी निभाने का भान काराएगा.

मध्यप्रदेश के एक गाँव में मोबाइल के जरिये पढ़ते बच्चें

शिक्षकों की नही होगी कमी

नई शिक्षा नीति में 4 वर्षीय एकीकृत बीएड डिग्री की व्यवस्था होने से केवल शिक्षा क्षेत्र में कार्य करने के इच्छुक युवाओं के आने का रास्ता खुलेगा, वही स्नातक के बाद विद्यार्थियों का समय भी बचेगा. अभी तक कई बार शिक्षक होने का विकल्प सबसे आखिरी करियर आप्शन के रुप में देखा जाता है. इस कदम के साथ साथ शिक्षकों के क्षमता संवर्द्धन पर भी अधिक जोर दिया गया है ताकि वे अपनी प्रतिभा का समुचित उपयोग नौनिहालों के लिए कर सकें.

सबसे खास बात है शिक्षकों के खाली पदों को भरने के स्पष्ट लक्ष्य. देश के हाई स्कूल और हायर सेकेंडरी स्कूलों में शिक्षकों के 2 लाख से भी अधिक पद अभी खाली है. बात प्राइमरी स्कूलों की करें तो वहां पर खाली पदों की संख्या 9 लाख से भी अधिक है. शिक्षकों के खाली पद सबसे अधिक वहां है, जो देश के पिछड़े इलाके है. खासकर जहाँ वंचित तबके के लोग रहते है. नई नीति ने प्राथमिकता के आधार पर जल्द से जल्द और समयबद्ध तरीके से शिक्षकों के खाली पद भरने पर जोर दिया है.

यही नही छात्र-शिक्षक अनुपात को भी बेहतर करने के प्रयास होंगे. अभी 30 विद्यार्थियों पर एक शिक्षक का प्रावधान है. देश के 112 आकांक्षी जिलों में छात्र-शिक्षक का अनुपात सही नही है. इन पिछड़े इलाकों में शिक्षक नियुक्ति की कोशिशें भी विफ़ल रहती है. नई नीति 25 बच्चों पर एक शिक्षक रखने की बात उन इलाकें के लिए करती है, जहाँ शैक्षणिक दृष्टि से अधिक चुनौतियाँ है. शिक्षक नियुक्ति एवं पर्याप्त शिक्षकों की उपलब्धता सीखने के संकट से उबरने में काफी मददगार साबित होगी.

बाल्यकाल की शिक्षा पर अधिक जोर

सितंबर 2019 तक के आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक तो देश में 1380796  आंगनवाड़ी केंद्र थे. इन केन्द्रों में 6 माह से लेकर 6 वर्ष की आयुवर्ग के तक़रीबन 7 करोड़ बच्चें नामांकित थे. अफ़सोस इन करोड़ों बच्चों के लिए आंगनवाड़ी केन्द्र अबतक उचित पोषण सामग्री देने और खेलने-कूदने की जगह ही थी. शिक्षा संबंधी कार्य पर उतना ध्यान नही था. नई शिक्षा नीति ने शिक्षा प्रणाली में बाल्यवस्था की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया है. अब वे शिक्षा केंद्र के रूप में भी तब्दील होंगे. इसके लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाये गए है.

पहली प्रमुख बात है आंगनवाड़ी कार्यकर्त्ताओं का प्रशिक्षण! आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक देश में 13,29,138 आंगनवाड़ी कार्यकर्ता  और 11,85,291 आंगनवाड़ी सेविका कार्यरत है. नई शिक्षा नीति ने 12वीं अथवा उससे अधिक पढ़ी लिखी कार्यकर्ताओं के लिए 6 महीने के विशेष सर्टिफिकेट कार्यक्रम, वही बाकि बचे लोगों के लिए एक वर्ष के डिप्लोमा कार्यक्रम का प्रावधान किया है. इस तरीके से आंगनवाड़ी केंद्र में कार्यरत कर्मी जब दक्ष होंगे तो वे बालमन को सीखने-समझने में मदद करेंगे.   

दूसरी प्रमुख बात ये है कि आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के दक्षता संवर्द्धन के साथ साथ नई शिक्षा नीति 0 से 3 वर्ष तथा 3 से 8 वर्ष की आयु वाले बच्चों के लिए अलग अलग पाठ्यक्रम विकसित करने की बात कही है. इसके लिए वजाप्ता प्रारंभिक बाल्यावस्था की शिक्षा के लिए एक उत्कृष्ट पाठ्यक्रम और शैक्षिणिक ढ़ांचा (NCPFECCE) बनाई जायेगी जिसमें भारतीय परंपरा के साथ साथ वैश्विक नवाचारों को भी शामिल किया जाएगा. इससे माता-पिता के साथ साथ आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के लिए भी बच्चों के शैक्षिक मार्गदर्शन करने में मदद मिलेगी.

तीसरी प्रमुख बात है कि बाल्यवस्था के शिक्षण हेतु विशेषज्ञ शिक्षक का संवर्ग तैयार होगा, जो नौनिहालों का भविष्य संवारेंगे. साथ ही यह प्रावधान किया गया है कि कक्षा पहली में जाने से पहले बच्चें बालवाटिका में जाएंगे, जहाँ उनके लिए विशेष शिक्षक होंगे. शिक्षा नीति में ये प्रावधान छोटे बच्चों को शिक्षा से जोड़ने की दिशा में एक बेहद क्रांतिकारी पहल है. 3 से 8 आयु वर्ग के बच्चों की शिक्षा पर विशेष ध्यान देना जरुरी भी है क्योंकि ये अवधि बच्चों के मानसिक विकास की दृष्टि से उत्तम समय है, जब वे आसानी से नयी बातों को सिखने में अधिक सक्षम होते है.

इसके अलावा आंगनवाड़ियों को स्कूल परिसर के साथ एकीकृत करने की बात भी कही गई है, जो बच्चों को स्कूल परिसर से न केवल परिचय कराएगी बल्कि पहली कक्षा में जाते समय पहले दिन से ही सहज महसूस कराने का काम करेगी. उन्हें स्कूल अंजान नही लगेगा.    

ड्रापआउट की समस्या होगी दूर

वर्ष 2017-18 के भारत में शिक्षा पर घरेलू सामाजिक खपत के प्रमुख संकेतों पर राष्ट्रीय सर्वेक्षण (एनएसएस) रिपोर्ट की माने तो शिक्षा प्रणाली में लोगों की भागीदारी बढ़ी है। लेकिन यही रिपोर्ट बताती है कि 3 से 35 वर्ष की आयु वाले 13.6 प्रतिशत लोगों ने कभी स्कूल में नामांकन नही करवाया। जो नामांकित भी हुए उनमें प्राइमरी स्कूलों से 10 प्रतिशत लोग ड्रापआउट हो गए। मिडिल के स्तर पर यह आंकड़ा 17.5 प्रतिशत था जबकि 19.8 प्रतिशत ने माध्यमिक स्तर पर ही स्कूल छोड़ दिया था।

देश के सुदूर ग्रामीण अंचल अथवा वनवासी क्षेत्रों में स्कूलों से ड्रापआउट होने बच्चों की संख्या देखकर किसकी छाती नही फटेगी. ऐसे अनेकों बच्चों को कई वजहों से स्कूल छोड़ते स्वयं अनुभव किया है. बेहद ख़ुशी की बात है कि नई शिक्षा नीति ने ड्राप आउट की समस्या को रेखांकित किया है और इससे निजात पाने का दिशाबोध कराया है.

ड्राप आउट मुक्त स्कूली शिक्षा के लिए नई शिक्षा नीति स्कूलों को संसाधनों से लैस करने की बात करती है. अधिकतर स्कूलों में ड्रापआउट की वजह शिक्षकों की कमी होती है. शिक्षा नीति शिक्षकों के खाली पदों को उन स्थानों पर भरने पर अधिक ध्यान देने को कहा है जहाँ काफी चुनौतियाँ है. व्यवहारिक रुप से अभी दुरस्त इलाकों में पोस्टिंग सजा की तरह देखि जाती है. नई नीति ऐसे इलाकों में जाने वाले शिक्षकों के लिए अलग से विशेष सुविधा देने की बात करती है. यही नही, ड्राप आउट को खत्म करने के लिए पाठ्यचर्या में बदलाव और उसे अधिक विद्यार्थीं केन्द्रित बनाने की बात भी शामिल है.

अल्पकालीन 3 महीने का प्ले आधारित स्कूल तैयारी का मॉड्यूल भी विकसित किया जाएगा ताकि पहली कक्षा में आने वाले बच्चें ड्राप आउट न हो सके. साथ ही उन्हें बुनियादी शिक्षा से जुड़ी जानकारी भी दी जा सकें.

ड्राप आउट की समस्या को दूर करने के लिए नई नीति समाज को भी स्कूल के साथ जोड़ने की वकालत करती है. इसके तहत न केवल नामांकन और ठहराव, बल्कि ड्राप आउट की स्थिति में दुबारा स्कूल से जुड़ने के लिए प्रशिक्षित सामाजिक कार्यकर्ताओं, काउंसलर की नियुक्ति की जाएगी.

इन कोशिशों के अलावा जो सशरीर स्कूल जाने में सक्षम नही है, उनके लिए राष्ट्रीय मुक्त विद्यालय संस्थान को भी मजबूत बनाये जाने की बात शामिल है, जिसके तहत अब केवल 10वीं और 12वीं ही नही, A, B और C कार्यक्रम, जो क्रमशः कक्षा 3, 5 और 8 के बराबर होंगे, भी उपलब्ध कराएंगे. इससे कोई भी व्यक्ति सामाजिक रूप से भी स्वयं को ड्रापआउट की वजाए किसी न किसी कक्षा पास होने के भाव के साथ समाज जीवन में अपना योगदान देगा, जिसे वर्तमान व्यवस्था उसे कमजोर और अनपढ़ के रुप में पहचानती है.

मातृभाषा बनेगी बच्चों की ताकत

यूनेस्को ने 2010 में एटलस प्रकाशित किया था जिसमें भारत के 197 स्थानीय भाषाओं को सूचीबद्ध किया था. मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अधीन आनेवाले भारतीय भाषा संस्थान ने भी 2013 में देश के अलग अलग राज्यों के उन 117 भाषाओं की पहचान की जिनका अस्तित्व या तो खतरे में है अथवा निकट भविष्य में समाप्ति के कगार पर है. इसलिए बेहद जरुरी हो जाता है कि देश स्थानीय भाषा को भावी पीढ़ी को सौंपे.

इस दृष्टि से स्कूली शिक्षा में स्थानीय भाषा को प्राथमिकता, विशेषकर संविधान की सूचि में शामिल भारतीय भाषाओं से बालमन को जोड़ने का प्रयास नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति को बेहद ख़ास बनाते है. भाषाई विवाद को पीछे छोड़ते हुए नई नीति किसी एक भाषा पर जोर देने की वजाए देश में त्रि-भाषा सूत्र लागू करने और कम से कम 2 भारतीय भाषाओं को पढ़ाये जाने की बात करती है. नई शिक्षा नीति के अनुसार कम से कम 8वीं तक स्थानीय भाषा अथवा मातृभाषा में बच्चों को पढ़ाये जाएंगे. यह एक बेहद जरुरी कदम है.

भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देने से और देश की अन्यत्र भाषाओं के अध्ययन के विकल्प से राष्ट्रीय भावना का विकास होगा, अधिक भाषाओं के जानकार राष्ट्रीय एकता के अग्रदूत बनेंगे.

वोकेशनल शिक्षा से बनेगा आत्मनिर्भर भारत

नई नीति में कक्षा 6 से 8 के बच्चों के लिए 10 दिवसीय बस्ता मुक्त समय की बात कही गयी है, ताकि वे स्थानीय परिवेश की गतिविधियों यथा बागवानी, बिजली के कार्य, बर्तन बनाने आदि से जुड़ी बातों को समझ पाए, उसका अनुभव ले पाए. वोकेशनल शिक्षा पर जोर देते हुए विशेषज्ञ शिक्षक की बहाली की बात कही गई है. वोकेशनल शिक्षा पर बढ़ावा देने से स्वरोजगार और स्वाबलंबी भारत बनाने की दिशा में एक बड़ा कदम होगा. स्थानीय परिवेश से जोड़कर देने जाने वाली शिक्षा श्रम के महत्व को समझाएगी, वहां की चुनौतियों के समाधान की तरफ ध्यान ले जायेगी, स्थानीय जरुरतों को पूरा करेगा.

About the author: Abhishek Ranjan

Abhishek Ranjan is the Founder and Director of SarkariSchool.IN

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